Monday 31 July 2017

 कहा गया है की पहला सुख निरोगी काया-अर्थात स्वस्थ्य शरीर ही जीवन की सबसे बड़ी संपत्ति है और उसी से आप अन्य सुखों का उपभोग कर सकते हैं तथा साधना में आसन की दृढ़ता को प्राप्त कर सकते हैंl
        कायिक सुख,चित्त की स्थिरता और एकाग्र भाव से साधनात्मक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जिस क्रिया का प्रयोग किया जाता है,उसे आसन कहा जाता है l सामान्य बोलचाल की भाषा में सुविधापूर्वक एकाग्रता पूर्वक स्थिर होकर बैठने की क्रिया आसन कहलाती है lजिस प्रकार इस महत्वपूर्ण क्रिया का पतंजलि ऋषि द्वारा जिस योगदर्शन की व्याख्या व प्राकट्य किया गया उसमे विवृत अष्टांग योग में  आसन को उन्होंने तृतीय स्थान दिया है परन्तु इसी आसन की महत्ता को सर्वाधिक बल नाथ संप्रदाय की दिव्य सिद्धमंडलियों द्वारा प्रवर्तित षडंगयोग मे मिला है ,जहाँ पर गुरु गोरखनाथ आदि ने आसन को प्रथम स्थान पर रख कर साधना में सफलता के लिए अनिवार्य माना है l अर्थात जिसका आसन ही नहीं सधा हो भला वो साधना में सिद्धियों का वरण कैसे कर सकता है lमैंने बहुत पहले श्वेतबिंदु-रक्तबिंदु लेख श्रृंखला में इस तथ्य का विवरण  भी दिया था की यदि व्यक्ति साधना काल में मन्त्र जप के मध्य हिलता डुलता है ,पैर बदलता है तो सुषुम्ना की स्थिति परिवर्तित होने से ना सिर्फ उसके चक्रों के स्पंदन में अंतर आता है अपितु मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्र पर तीव्र वेगी नकारात्मक प्रभाव पड़ने से साधक में काम भाव की तीव्रता भी आ जाती है और उसे स्वप्नदोष,प्रदर,प्रमेह जैसी बिमारियों का भी प्रभाव झेलना पड़ता हैl
   आसन का स्थिरीकरण और शरीर की निरोगता साधना का मूल है ,इसके  बाद ही चित्त को एकाग्र करने की क्रिया की जा सकती है और साधना में सफलता प्राप्त होती है ,जब साधक एकाग्र मन से लंबे समय तक जप करने में सक्षम हो जाता है तो “जपः जपात् सिद्धिर्भवेत” की उक्ति सार्थक होती है अर्थात सिद्धि को आपके गले में माला डालने के लिए आना ही पड़ता है l
   परन्तु ये इतना सहज भी नहीं है क्यूंकि जब तक साधक का शरीर रोग मुक्त ना होजाये तब तक वो आसन पर दृढ़ता पूर्वक बैठ ही नहीं सकता,स्वस्थ्य शरीर से ही साधना की जा सकती है ,आसन स्थिरीकरण किया जा सकता है और तदुपरांत ही साधना में सफलता प्राप्त कर तेजस्विता पायी जा सकती है l सदगुरुदेव ने स्पष्ट करते हुए कहा था की “जब शरीर ही सभी दृष्टियों से साधना में सफलता प्राप्त करने का आधार है ,तो स्वस्थ्य शरीर की प्राप्ति के लिए विश्वामित्र प्रणीत दिव्य देह सिद्धि साधनाअनिवार्य कर्म हो जाती है ,इस साधना को संपन्न करने के बाद आत्म सिद्धि का मार्ग प्रशस्त हो जाता है,  देहसिद्धि की सम्पूर्ण क्रिया ६ क्रियाओं का समन्वित रूप होती है”-
मष्तिष्क नियंत्रण- साधना के लिए सदैव सकारात्मक भाव से युक्त मष्तिष्क ,जिसमे असफलता का कदापि भाव व्याप्त न हो पाए l
आसन नियंत्रण- हम चाहे जितनी भी माला जप संपन्न कर ले,तब भी हमारे बैठने का भाव और शरीर विकृत न होl
चक्षु नियंत्रण- साधना काल व अन्य समय हमारे नेत्रो में कोई हल्का भाव ना आने पाए और सदैव हमारी दृष्टि तेजस्विता युक्त होकर सिद्धि प्राप्ति के गूढ़ सूत्रों को देख कर प्रयोग कर सके,आत्म सात कर सके l
श्वांस नियंत्रण- मन्त्र जप के मध्य श्वांस की लय व गति में परिवर्तन ना हो और साधक मंत्र जप सुगमता से कर सकेlक्यूंकि प्रत्येक प्रकार के मंत्र की दीर्घता और लघुता में भिन्न भिन्न प्रकार की श्वांस मात्र की आवश्यकता होती है l
अधोभाग नियंत्रण-साधना में बैठने की क्रिया कमर से लेकर पैरों के ऊपर निर्भर होती है, उनमे दृढ़ता प्रदान करना l
पंचभूतात्मक नियंत्रण- हमारे शरीर में व्याप्त पंचभूत तत्व यथा जल,अग्नि,वायु,आकाश और पृथ्वी की मात्रा को साधना काल में घटा-बढ़ा कर शरीर को साधनात्मक वतावर की अनुकूलता प्रदान की जा सकती है lतब ऐसे में हमारा शरीर बाह्य और आंतरिक रोगों और पीडाओं से मुक्त होता हुआ साधना पथ पर अग्रसर होते जाता है,प्रकारांतर में वो पूर्ण आरोग्य की प्राप्ति कर लेता है l
    इस प्रकार की क्रियाओं के बाद ही शरीर साधना के लिए तत्पर हो पाता है ,और बिना शरीर को नियंत्रित किये या अनुकूल बनाये साधना में प्रवेश करने से कोई लाभ नहीं होता है l
  वस्तुतः रोगमुक्त निर्जरा काया की प्राप्ति आज के युग में इतनी सहज नहीं है ,क्यूंकि आज का युग पूरी तरह से प्रदूषित,शापित और भोग युक्त है ,तब ऐसे में दिव्यदेह सिद्धि साधना हमारा मार्ग सुगम कर देती है l सदगुरुदेव ने इस साधना का विवेचन करते हुए स्पष्ट किया था कीसाधक जगत को ये साधना ब्रम्हर्षि विश्वामित्र जी की देन है, उपरोक्त ६ क्रियाओं का इस साधना में पूर्ण समावेश है,वस्तुतः इस मंत्र में माया बीज,काली बीज और मृत्युंजय बीज को ऐसे पिरोया गया है की मात्र इसका उच्चारण ही ब्रह्माण्ड से सतत प्राणऊर्जा का प्रवाह साधक में करने लगता है और उसकी आंतरिक न्यूनताओं का शमन होकर उसकी देह कालातीत होने के मार्ग पर अग्रसर होने लगती हैl
   पारद की वेधन क्षमता अनंत है और वो अविनाशी तत्व है ,अतः इस साधना की पूर्णता के लिए महत्वपूर्ण सामग्रीपारद शिवलिंग और पंचमुखी रुद्राक्ष है, इस साधना को किसी भी सोमवार या गुरूवार से प्रारंभ किया जा सकता है,सूर्योदय से,श्वेत वस्त्र,उत्तर दिशा का प्रयोग इस साधना के लिए निर्धारित हैl
   प्रातः उठकर पूर्ण पवित्र भाव से स्नान कर सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे तथा उनसे साधना में पूर्ण सफलता की प्रार्थना करे,तत्पश्चात साधना कक्ष में जाकर सफ़ेद आसन पर बैठ जाये और सामने बाजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाकर सदगुरुदेव का दिव्य चित्र, उनकी दाई तरफ भगवान गणपति का विग्रह या प्रतीक रूप में सुपारी की स्थापना करे फिर गुरु चित्र के सामने दो ढेरी चावलों की बनाये अपने बायीं तरफ की ढेरी पर गाय के घृत का दीपक प्रज्वलित करे(याद रखियेगा की सदगुरुदेव के चित्र के सामने दो ढेरी बनानी है और गणपति विग्रह के सामने इतनी जगह छोडनी है जहाँ एक इतना बड़ा ताम्बे का कटोरा रखा जा सके जिसमे आधा लीटर पानी आ जाये) और दाई तरफ तेल का दीपक रखना है l इसके बाद गणपति जी के सामने ताम्बे का पात्र रख कर उसमे रक्तचंदन से एक गोला बनाकर उसमे “ह्रौं” लिख दे और उसके ऊपर पारद शिवलिंग तथा रुद्राक्ष स्थापित कर दे lइस क्रिया के बाद आप गणपति पूजन,गुरु पूजन और शिवलिंग पूजन पंचोपचार विधि या सामर्थ्यानुसार करे और गुरुमंत्र की ११ माला जप करे lतत्पश्चात  का ११ बार उच्चारण करे  ताम्बे के पात्र में रखे स्वच्छ जल से (जिसमे गंगा जल मिला लिया गया हो) १-१ चाय के छोटे चम्मच से शिवलिंग के ऊपर दिव्य देह सिद्धि मंत्र का उच्चारण करते हुए जल अर्पित करे, ये क्रिया १४ दिनों तक नित्य १ घंटे करनी है lयाद रहे उपांशु जप करना है ,जो जल आप नित्य अर्पित करेंगे उसे अगले दिन अपने स्नान के जल में मिलकर स्नान कर लेना है l
 दिव्य देह सिद्धि मंत्र-
 ॐ ह्रौं ह्रीं क्रीं जूं सः देह सिद्धिम् सः जूं क्रीं ह्रीं ह्रौं ॐ  ll
OM HROUM HREENG KREENG JOOM SAH DEH SIDDHIM SAH JOOM KREENG HREENG HROUM OM l
 १४ दिनों के बाद आप शिवलिंग को पूजनस्थल पर स्थापित कर दे और रुद्राक्ष को यथाशक्ति दक्षिणा के साथ भगवती काली या दुर्गा मंदिर में अर्पित कर दे तथा बाद के दिनों में मात्र २१ बार मंत्र का नित्य उच्चारण करते रहे,सदगुरुदेव की असीम कृपा से हम सभी के समक्ष ऐसी गोपनीय साधनाए बची रही है है,अतः साधनात्मक उन्नति की प्राप्ति के लिए अपनी कमियों को दूर करे और स्वस्थ्य शरीर के द्वारा साधना करे तथा आसन की स्थिरता को प्राप्त करे जिससे उच्च स्तरीय साधनाओं की सहज प्राप्ति हो सकेl

Friday 28 July 2017

लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र

सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंन्द की वाणी से लक्ष्मी साधना के अद्वितीय

बीस सूत्र
प्रत्येक गृहस्थ इन सूत्रों-नियमों का पालन कर जीवन में लक्ष्मी को स्थायित्व प्रदान कर सकता है। आप भी अवश्य अपनाएं -

  1. जीवन में सफल रहना है या लक्ष्मी को स्थापित करना है तो प्रत्येक दशा में सर्वप्रथम दरिद्रता विनाशक प्रयोग करना ही होगा। यह सत्य है की लक्ष्मी धनदात्री हैं, वैभव प्रदायक हैं, लेकिन दरिद्रता जीवन की एक अलग स्थिति होती है और उस स्थिति का विनाश अलग ढंग से सर्वप्रथम करना आवश्यक होता है।

  2. लक्ष्मी का एक विशिष्ट स्वरूप है "बीज लक्ष्मी"। एक वृक्ष की ही भांति एक छोटे से बीज में सिमट जाता है - लक्ष्मी का विशाल स्वरूप। बीज लक्ष्मी साधना में भी उतर आया है भगवती महालक्ष्मी के पूर्ण स्वरूप के साथ-साथ जीवन में उन्नति का रहस्य।

  3. लक्ष्मी समुद्र तनया है, समुद्र से उत्पत्ति है उनकी, और समुद्र से प्राप्त विविध रत्न सहोदर हैं उनके, चाहे वह दक्षिणवर्ती शंख हो या मोती शंख, गोमती चक्र, स्वर्ण पात्र, कुबेर पात्र, लक्ष्मी प्रकाम्य क्षिरोदभव, वर-वरद, लक्ष्मी चैतन्य सभी उनके भ्रातृवत ही हैं और इनकी गृह में उपस्थिति आह्लादित करती है, लक्ष्मी को विवश कर देती है उन्हें गृह में स्थापित कर देने को।

  4. समुद्र मंथन में प्राप्त कर रत्न "लक्ष्मी" का वरण यदि किसी ने किया तो वे साक्षात भगवान् विष्णु। आपने पति की अनुपस्थिति में लक्ष्मी किसी गृह में झांकने तक की भी कल्पना नहीं कर करतीं और भगवान् विष्णु की उपस्थिति का प्रतीक है शालिग्राम, अनंत महायंत्र एवं शंख। शंख, शालिग्राम एवं तुलसी का वृक्ष - इनसे मिलकर बनता है पूर्ण रूप से भगवान् लक्ष्मी - नारायण की उपस्थिति का वातावरण।

  5. लक्ष्मी का नाम कमला है। कमलवत उनकी आंखे हैं अथवा उनका आसन कमल ही है और सर्वाधिक प्रिय है - लक्ष्मी को पदम। कमल - गट्टे की माला स्वयं धारण करना आधार और आसन देना है लक्ष्मी को आपने शरीर में लक्ष्मी को समाहित करने के लिए।

  6. लक्ष्मी की पूर्णता होती है विघ्न विनाशक श्री गणपति की उपस्तिथि से जो मंगल कर्ता है और प्रत्येक साधना में प्रथम पूज्य। भगवान् गणपति के किसी भी विग्रह की स्थापना किए बिना लक्ष्मी की साधना तो ऐसी है, ज्यों कोई अपना धन भण्डार भरकर उसे खुला छोड़ दे।

  7. लक्ष्मी का वास वही सम्भव है, जहां व्यक्ति सदैव सुरुचिपूर्ण वेशभूषा में रहे, स्वच्छ और पवित्र रहे तथा आन्तरिक रूप से निर्मल हो। गंदे, मैले, असभ्य और बक्वासी व्यक्तियों के जीवन में लक्ष्मी का वास संभव ही नहीं।

  8. लक्ष्मी का आगमन होता है, जहां पौरुष हो, जहां उद्यम हो, जहां गतिशीलता हो। उद्यमशील व्यक्तित्व ही प्रतिरूप होता है भगवान् श्री नारायण का, जो प्रत्येक क्षण गतिशील है, पालन में संलग्न है, ऐसे ही व्यक्तियों के जीवन में संलग्न है। ऐसे ही व्यक्तियों के जीवन में लक्ष्मी गृहलक्ष्मी बनकर, संतान लक्ष्मी बनकर आय, यश, श्री कई-कई रूपों मे प्रकट होती है।

  9. जो साधक गृहस्थ है, उन्हें अपने जीवन मे हवन को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए और प्रत्येक माह की शुक्ल पंचमी को श्री सूक्त के पदों से एक कमल गट्टे का बीज और शुद्ध घृत के द्वारा आहुति प्रदान करना फलदायक होता है।

  10. आपने दैनिक जीवन क्रम में नित्य महालक्ष्मी की किसी ऐसी साधना - विधि को सम्मिलित करना है, जो आपके अनुकूल हो, और यदि इस विषय में निर्णय - अनिर्णय की स्थिति हो तो नित्य प्रति, सूर्योदय काल में निम्न मन्त्र की एक माला का मंत्र जप तो कमल गट्टे की माला से अवश्य करना चाहिए।
    मंत्र: ॐ श्रीं श्रीं कमले कमलालाये प्रसीद प्रसीद मम गृहे आगच्छ आगच्छ महालक्ष्म्यै नमः

  11. किसी लक्ष्मी साधना को आपने जीवन में अपनायें और उसे किस मन्त्र से संपन्न करे उसका उचित ज्ञान तो केवल आपके गुरुदेव के पास ही है, और योग्य गुरुदेव अपने शिष्य की प्रार्थना पर उसे महालक्ष्मी दीक्षा से विभूषित कर वह गृह्य साधना पद्धति स्पष्ट करते है, जो सम्पूर्ण रूप से उसके संस्कारों के अनुकूल हो।

  12. अनुभव से यह ज्ञात होता है की बड़े-बड़े अनुष्ठान की अपेक्षा यदि छोटी साधानाए, मंत्र-जप और प्राण प्रतिष्ठायुक्त यंत्र स्थापित किए जाएं तो जीवन में अनुकूलता तीव्रता से आती है और इसमें हानि की भी कोई संभावना नहीं होती।

  13. जीवन में नित्य महालक्ष्मी के चिंतन, मनन और ध्यान के साथ-साथ यंत्रों का स्थापन भी, केवल महत्वपूर्ण ही नहीं, आवश्यक है। श्री यंत्र, कनक धारा यंत्र और कुबेर यंत्र इन तीनों के समन्वय से एक पूर्ण क्रम स्थापित होता है।

  14. जब कोई छोटे-छोटे प्रयोग और साधनाएं सफल न हो रही हों तब भी लक्ष्मी की साधना बार-बार अवश्य ही करनी चाहिए।

  15. पारद निर्मित प्रत्येक विग्रह आपने आप में सौभाग्यदायक होता है, चाहे वह पारद महालक्ष्मी हो या पारद शंख अथवा पारद श्रीयंत्र। पारद शिवलिंग और पारद गणपति भी आपने आप में लक्ष्मी तत्व समाहित किए होते हैं।

  16. जीवन में जब भी अवसर मिले, तब एक बार भगवती महालक्ष्मी के शक्तिमय स्वरूप, कमला महाविद्या की साधना अवश्य ही करनी चाहिए, जिससे जीवन में धन के साथ-साथ पूर्ण मानसिक शांति और श्री का आगमन हो सके।

  17. धन का अभाव चिंता जनक स्थिति में पहुंच जाय और लेनदारों के तानों और उलाहनों से जीना मुश्किल हो जाता है, तब श्री महाविद्या साधना साधना करना ही एक मात्र उपाय शेष रह जाता है।

  18. जब सभी प्रयोग असफल हो जाएं, तब अघोर विधि से लक्ष्मी प्राप्ति का उपाय ही अंतिम मार्ग शेष रह जाता है, लेकिन इस विषय में एक निश्चित क्रम अपनाना पड़ता है।

  19. कई बार ऐसा होता है की घर पर व्याप्त किसी तांत्रिक प्रयोग अथवा गृह दोष या अतृप्त आत्माओं की उपस्थिति के कारण भी वह सम्पन्नता नहीं आ पाती, जो की अन्यथा संभव होती है। ऐसी स्थिति को समझ कर "प्रेतात्मा शांति" पितृ दोष शान्ति करना ही बुद्धिमत्ता है।

  20. उपरोक्त सभी उपायों के साथ-साथ सीधा सरल और सात्विक जीवन, दान की भावना, पुण्य कार्य करने में उत्साह, घर की स्त्री का सम्मान और प्रत्येक प्रकार से घर में मंगलमय वातावरण बनाए रखना ही सभी उपायों का पूरक है क्योंकि इसके अभाव में यदि लक्ष्मी का आगमन हो भी जाता है तो स्थायित्व संदिग्ध रह जाता है।

तन्त्र

तन्त्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत हैं। यह शब्द ‘तन्’ और ‘त्र’ (ष्ट्रन) इन दो धातुओं से बना है, अतः “विस्तारपूर्वक तत्त्व को अपने अधीन करना”- यह अर्थ व्याकरण की दृष्टि से स्पष्ट होता है, जबकि ‘तन्’ पद से प्रकृति और परमात्मा तथा ‘त्र’ से स्वाधीन बनाने के भाव को ध्यान में रखकर ‘तन्त्र’ का अर्थ- देवताओं के पूजा आदि उपकरणों से प्रकृति और परमेश्वर को अपने अनुकूल बनाना होता है। साथ ही परमेश्वर की उपासना के लिए जो उपयोगी साधन हैं, वे भी ‘तन्त्र’ ही कहलाते हैं। 
“सर्वेऽथा येन तन्यन्ते त्रायन्ते च भयाज्जनान्।
इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते।।
‘जिसके द्वारा सभी मन्त्रार्थों-अनुष्ठानों का विस्तार पूर्वक विचार ज्ञात हो तथा जिसके अनुसार कर्म करने पर लोगों की भय से रक्षा हो, वही ‘तन्त्र’ है।’
तन्त्र शास्त्र क्या है ?
तन्त्र-शास्त्रों के लक्षणों के विषय में ऋषियों ने शास्त्रों में जो वर्णन किया है, उसके अनुसार निम्न विषयों का जिस शास्त्र में वर्णन किया गया हो, उसको ‘तन्त्र-शास्त्र’ कहते हैं।
१॰ सृष्टि-प्रकरण, २॰ प्रलय-प्रकरण, ३॰ तन्त्र-निर्णय, ४॰ दैवी सृष्टि का विस्तार, ५॰ तीर्थ-वर्णन, ६॰ ब्रह्मचर्यादि आश्रम-धर्म, ७॰ ब्राह्मणादि-वर्ण-धर्म, ८॰ जीव-सृष्टि का विस्तार, ९॰ यन्त्र-निर्णय, १०॰ देवताओं की उत्पत्ति, ११॰ औषधि-कल्प, १२॰ ग्रह-नक्षत्रादि-संस्थान, १३॰ पुराणाख्यान-कथन, १४॰ कोष-कथन, १५॰ व्रत-वर्णन, १६॰ शौचा-शौच-निर्णय, १७॰ नरक-वर्णन, १८॰ आकाशादि पञ्च-तत्त्वों के अधिकार के अनुसार पञ्च-सगुणोपासना, १९॰ स्थूल ध्यान आदि भेद से चार प्रकार का ब्रह्म का ध्यान, २०॰ धारणा, मन्त्र-योग, हठ-योग, लय-योग, राज-योग, परमात्मा-परमेश्वर की सब प्रकार की उपासना-विधि, २१॰ सप्त-दर्शन-शास्त्रों की सात ज्ञान-भूमियों का रहस्य, २२॰ अध्यात्म आदि तीन प्रकार के भावों का लक्ष्य, २३॰ तन्त्र और पुराणों की विविध भाषा का रहस्य, २४॰ वेद के षङंग, २५॰ चारों उप-वेद, प्रेत-तत्त्व २६॰ रसायन-शास्त्र, रसायन सिद्धि, २७॰ जप-सिद्धि, २८॰ श्रेष्ठ-तप-सिद्धि, २९॰ दैवी जगत्-सम्बन्धीय रहस्य, ३०॰ सकल-देव-पूजित शक्ति का वर्णन, ३१॰ षट्-चक्र-कथन, ३२॰ स्त्री-पुरुष-लक्षण वर्णन, ३३ राज-धर्म, दान-धर्म, युग धर्म, ३४॰ व्वहार-रीति, ३५॰ आत्मा-अनात्मा का निर्णय इत्यादि।
विभिन्न ‘तन्त्र’-प्रणेताओं के विचार-द्वारा ‘तन्त्रों’ को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-
१॰ श्री सदा-शिवोक्त तन्त्र, २॰ पार्वती-कथित तन्त्र, ३॰ ऋषिगण-प्रणीत तन्त्र ग्रन्थ। ये १॰ आगम , २॰ निगम, और ३॰ आर्ष तन्त्र कहलाते हैं।
यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है, जो पूजा और आचार-पद्धति का परिचय देते हुए इच्छित तत्त्वों को अपने अधीन बनाने का मार्ग दिखलाता है। इस प्रकार यह साधना-शास्त्र है। इसमें साधना के अनेक प्रकार दिखलाए गए हैं, जिनमें देवताओं के स्वरुप, गुण, कर्म आदि के चिन्तन की प्रक्रिया बतलाते हुए ‘पटल, कवच, सहस्त्रनाम तथा स्तोत्र’- इन पाँच अंगों वाली पूजा का विधान किया गया है। इन अंगों का विस्तार से परिचय इस प्रकार हैः-
(क) पटल – इसमें मुख्य रुप से जिस देवता का पटल होता है, उसका महत्त्व, इच्छित कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिए जप, होम का सूचन तथा उसमें उपयोगी सामग्री आदि का निर्देशन होता है। साथ ही यदि मन्त्र शापित है, तो उसका शापोद्धार भी दिखलाया जाता है।
(ख) पद्धति – इसमें साधना के लिए शास्त्रीय विधि का क्रमशः निर्देश होता है, जिसमें प्रातः स्नान से लेकर पूजा और जप समाप्ति तक के मन्त्र तथा उनके विनियोग आदि का सांगोपांग वर्णन होता है। इस प्रकार नित्य पूजा और नैमित्तिक पूजा दोनों प्रकारों का प्रयोग-विधान तथा काम्य-प्रयोगों का संक्षिप्त सूचन इसमें सरलता से प्राप्त हो जाता है।
(ग) कचव – प्रत्येक देवता की उपासना में उनके नामों के द्वारा उनका अपने शरीर में निवास तथा रक्षा की प्रार्थना करते गुए जो न्यास किए जाते हैं, वे ही कचव रुप में वर्णित होते हैं। जब ये ‘कचव’ न्यास और पाठ द्वारा सिद्ध हो जाते हैं, तो साधक किसी भी रोगी पर इनके द्वारा झाड़ने-फूंकने की क्रिया करता है और उससे रोग शांत हो जाते हैं। कवच का पाठ जप के पश्चात् होता है। भूर्जपत्र पर कवच का लेखन, पानी का अभिमन्त्रण, तिलकधारण, वलय, ताबीज तथा अन्य धारण-वस्तुओं को अभिमन्त्रित करने का कार्य भी इन्हीं से होता है।
(घ) सहस्त्रनाम – उपास्य देव के हजार नामों का संकलन इस स्तोत्र में रहता है। ये सहस्त्रनाम ही विविध प्रकार की पूजाओं में स्वतन्त्र पाठ के रुप में तथा हवन-कर्म में प्रयुक्त होते है। ये नाम देवताओं के अति रहस्यपूर्ण गुण-कर्मों का आख्यान करने वाले, मन्त्रमय तथा सिद्ध-मंत्ररुप होते हैं। इनका स्वतन्त्र अनुष्ठान भी होता है।
(ङ) स्तोत्र – आराध्य देव की स्तुति का संग्रह ही स्तोत्र कहलाता है। प्रधान रुप से स्तोत्रों में गुण-गान एवँ प्रार्थनाएँ रहती है; किन्तु कुछ सिद्ध स्तोत्रों में मन्त्र-प्रयोग, स्वर्ण आदि बनाने की विधि, यन्त्र बनाने का विधान, औषधि-प्रयोग आदि भी गुप्त संकेतों द्वारा बताए जाते हैं। तत्त्व, पञ्जर, उपनिषद् आदि भी इसी के भेद-प्रभेद हैं। इनकी संख्या असंख्य है।
इन पाँच अंगों से पूर्ण शास्त्र ‘तन्त्र शास्त्र’ कहलाता है।

Friday 14 July 2017

लीलावती अप्सरा मंत्र

यह एक विशेष साधना है,जिसको सिर्फ चंद्रग्रहण पर ही शुरू किया जा सकता है,अन्य समय पर शुरुआत करने से लाभ प्राप्त करना कठिन है। यहा दिया जाने वाला लीलावती अप्सरा मंत्र पुर्ण और प्रामाणिक है,

साधना के लाभ:
जो व्यक्ति पूर्ण रूप से हष्ट पुष्ट होते हुए भी आकर्षक व्यक्तित्व न होने के कारण अन्य लोगों को अपनी और आकर्षित नहीं कर पाते हैं तथा हीनभावना से ग्रस्त होते हैं , इस साधना के प्रभाव से उनका व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक व चुम्बकीय हो जाता है तथा उनके संपर्क में आने वाले सभी लोग उनकी और आकर्षित होने लगते हैं । जो मन के अनुकूल सुंदर जीवन साथी पाना चाहते हैं किन्तु किसी कारणवश यह संभव न हो रहा हो, इस साधना के प्रभाव से उनको मन के अनुकूल सुंदर जीवन साथी प्राप्त होने की स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं और मनचाहा जीवनसाथी मिल जाता है ।
जिस व्यक्ति के वैवाहिक, पारिवारिक, सामाजिक जीवन में क्लेश व तनाव की स्थिति उत्पन्न हो, इस साधना के प्रभाव से उनके वैवाहिक, पारिवारिक व सामाजिक जीवन में प्रेम सौहार्द की स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं !
जो व्यक्ति अभिनय के क्षेत्र में सफल होने की इच्छा रखते हैं किन्तु सफल नहीं हो पाते हैं, इस साधना के प्रभाव से उनके अंदर उत्तम अभिनय की क्षमता की वृद्धि होने के साथ-साथ अभिनय के क्षेत्र में सफल होने की स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं । जो व्यक्ति युवावस्था में होने पर भी पूर्ण यौवन से युक्त नहीं होते हैं, इस साधना से उनके अंदर उत्तम यौवन व व्यक्तित्व निखर आता है ।
जो व्यक्ति सुन्दर रूप सौन्दर्य की इच्छा रखते हैं किन्तु प्रकृति द्वारा कुरूपता से दण्डित हैं, इस साधना के प्रभाव से उनके अंदर आकर्षक रूप सौन्दर्य निखर आता है । जो व्यक्ति कार्यक्षेत्र में मन के अनुकूल अधिकारी या सहकर्मी न होने के कारण असहज परिस्थियों में नौकरी करते हैं, या नौकरी चले जाने का भय रहता है, इस साधना के प्रभाव से उनके अधिकारी व सहकर्मी उनके साथ मित्रवत हो जाते हैं तथा नौकरी चले जाने का भय भी समाप्त हो जाता है ।
जो व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि वह अन्य लोगों को अपनी बात या कार्य से प्रभावित नहीं कर पाते हैं, इस साधना के प्रभाव से उनका व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक व चुम्बकीय हो जाता है तथा उनके संपर्क में आने वाले सभी लोग उनकी और आकर्षित होकर उनकी बातों या कार्य से प्रभावित होने लगते हैं ।
उपरोक्त विषयों में अत्यंत कम समय में ही अपेक्षित परिणाम देकर आनंदमय जीवन को प्रशस्त करने वाली यह लीलावती अप्सरा साधना अवश्य ही संपन्न कर लेनी चाहिए, जिससे निश्चित ही आप अपनी इच्छा की पूर्णता को प्राप्त कर सकते हैं व आनंदमय भौतिक जीवन व्यतीत कर सकते हैं । क्योंकि अप्सराएं सौन्दर्य, यौवन, प्रेम, अभिनय, रस व रंग का ही प्रतिरूप होती हैं, अतः इनका प्रभाव जहाँ भी होता है वहां पर सौन्दर्य, यौवन, प्रेम, अभिनय, रस व रंग ही व्याप्त होता है ।
लीलावती अप्सरा की साधना अनेक रूपों में की जाती है, जैसे माँ, बहन, पुत्री, पत्नी अथवा प्रेमिका के रूप में इनकी साधना की जाती है ओर साधक जिस रूप में इनको साधता है ये उसी प्रकार का व्यवहार व परिणाम भी साधक को प्रदान करती हैं, अप्सराओं को पत्नी या प्रेमिका के रूप में साधने पर साधक को कोई कठिनाई या हानी नहीं होती है, क्योंकि यह तो साधक के व्यक्तित्व को इतना अधिक प्रभावशाली बना देती हैं कि साधक के संपर्क में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति अप्सरा साधक के मन के अनुकूल आचरण करने लगता है । अप्सरा को प्रत्यक्ष सिद्ध कर लिए जाने पर वह अपने गुण, धर्म, प्रभाव व सीमा के अधीन बिना किसी बाध्यता के अपनी सीमाओं के अधीन साधक की सभी इच्छाओं की पूर्ति करती है । माँ के रूप में साधने पर वह ममतामय होकर साधक का सभी प्रकार से पुत्रवत पालन करती हैं तो बहन व पुत्री के रूप में साधने पर वह भावनामय होकर सहयोगात्मक होती हैं ओर पत्नी या प्रेमिका के रूप में साधने पर उस साधक को उनसे अनेक सुख प्राप्त हो सकते हैं ।

साधना विधी:-
यह साधना ग्रहण शुरुआत होने के कुछ ही समय पहिले  ही शुरू करना है,जैसे 5-10 मिनट पुर्व शुरु कर सकते है और ग्रहण के समाप्ति के बाद भी 5-10 मिनट तक मंत्र जाप करते रहना है। मंत्र जाप बिना किसी माला के जाप करना भी सम्भव है। साधना करने हेतु किसी बाजोट पर पिला वस्त्र बिछाये और उसके उपर एक चमेली के फुलो का माला रखे,किसी प्लेट मे कुछ मिठाइयाँ रखे,एक छोटे ग्लास मे पानी रखें। बडा सा दिपक जलाये जो ग्रहण काल तक चलता रहे और दिपक मे शुद्ध देसी गाय के घी का ही उपयोग करें। धूप कोई भी चलेगा और साधना काल मे बुझ जाये तो कोई चिंता का बात नही है। मंत्र जाप उत्तर दिशा के तरफ ही मुख करके करना है,आसन वस्त्र का कोई बंधन नही है,किसी भी रंग के ले सकते हो । यह एक दिवसीय साधना है परंतु साधक चाहे तो चंद्रग्रहण के बाद भी नित्य जब तक चाहे तब तक मंत्र जाप कर सकता है।
मंत्र:-
।। ॐ हूं हूं लीलावती कामेश्वरी अप्सरा प्रत्यक्षं सिद्धि हूं हूं फट् ।।
om hoom hoom lilaawati kaameshwari apsaraa pratyaksham siddhi hoom hoom phat
साधना समाप्ति के बाद रखा हुआ मिठाइयों का भोग स्वयं ग्रहण करले और ग्लास मे रखा हुआ जल पिपल के पेड़ के जड पर चढा दे,जल चढाने के बाद भगवान श्रीकृष्ण जी से मन ही मन साधना सफलता हेतु प्रार्थना करें। साधना से आपको अपने जिवन मे परिवर्तन नजर आयेगा,इस साधना से किसी प्रकार का कोई नुकसान नही होता है सिर्फ अप्सरा प्रति स्वयं का भावना शुद्ध रखें। जब भी जिवन मे किसी विशेष मनोकामना को पुर्ण करवाना हो तो शुक्रवार या सोमवार के रात्री मे 9 बजे के बाद अप्सरा से प्रार्थना करते हुए मंत्र का 1 घण्टे तक जाप करने से आपका कोई भी मनोकामना शिघ्र ही पुर्ण हो सकता है। मंत्र जाप से पहिले वही विधी करना है जैसे हमने चंद्रग्रहण के समय किया था। जो साधक अप्सरा को प्रत्यक्ष सिद्ध करना चाहते है उन्हे यह साधना कम से कम नित्य रात्रिकाल मे 2-3 घण्टे तक करते रहना चाहिए। येसा कम से कम 21 दिनो तक करने से लीलावती अप्सरा का प्रत्यक्षीकरण होना सा सम्भव है। यह विशेष साधना करने से आपको बहोत सारी अनुभुतिया हो सकती है,जिसमे आपको सुगंध का एहसास हो सकता है और पायल/घुंगरु के बजने का आवाज भी आसकता है।
आप सभी को साधना मे अवश्य ही सफलता प्राप्त हो,यही मातारानी से प्रार्थना है।

मंत्र जप का प्रभाव

ब तक किसी विषय वस्तु के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं होती तो व्यक्ति वह कार्य आधे अधूरे मन से करता है और आधे-अधूरे मन से किये कार्य में सफलता नहीं मिल सकती है| मंत्र के बारे में भी पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है, मंत्र केवल शब्द या ध्वनि नहीं है, मंत्र जप में समय, स्थान, दिशा, माला का भी विशिष्ट स्थान है| मंत्र-जप का शारीरिक और मानसिक प्रभाव तीव्र गति से होता है| इन सब प्रश्नों का समाधान आपके लिये -

जिस शब्द में बीजाक्षर है, उसी को 'मंत्र' कहते हैं| किसी मंत्र का बार-बार उच्चारण करना ही 'मंत्र-जप' कहलाता है, लेकिन प्रश्न यह उठता है, कि वास्तव में मंत्र जप क्या है? जप से क्या परिणाम होते निकलता है?


व्यक्त-अव्यक्त चेतना


१. व्यक्त चेतना (Conscious mind). २. अव्यक्त चेतना (Unconscious mind).

हमारा जो जाग्रत मन है, उसी को व्यक्त चेतना कहते हैं| अव्यक्त चेतना में हमारी अतृप्त इच्छाएं, गुप्त भावनाएं इत्यादि विद्यमान हैं| व्यक्त चेतना की अपेक्षा अव्यक्त चेतना अत्यंत शक्तिशाली है| हमारे संस्कार, वासनाएं - ये सब अव्यक्त चेतना में ही स्थित होते हैं|

किसी मंत्र का जब ताप होता है, तब अव्यक्त चेतना पर उसका प्रभाव पड़ता है| मंत्र में एक लय (Rythm) होता है, उस मंत्र ध्वनि का प्रभाव अव्यक्त चेतना को स्पन्दित करता है| मंत्र जप से मस्तिष्क की सभी नाड़ियों में चैतन्यता का प्रादुर्भाव होने लगता है और मन की चंचलता कम होने लगाती है|


मंत्र जप के माध्यम से दो तरह के प्रभाव उत्पन्न होते हैं -

१. मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological effect)
२. ध्वनि प्रभाव (Sound effect)

मनोवैज्ञानिक प्रभाव तथा ध्वनि प्रभाव के समन्वय से एकाग्रता बढ़ती है और एकाग्रता बढ़ने से इष्ट सिद्धि का फल मिलता ही है| मंत्र जप का मतलब है इच्छा शक्ति को तीव्र बनाना| इच्छा शक्ति की तीव्रता से क्रिया शक्ति भी तीव्र बन जाति है, जिसके परिणाम स्वरुप इष्ट का दर्शन या मनोवांछित फल प्राप्त होता ही है| मंत्र अचूक होते हैं तथा शीघ्र फलदायक भी होते हैं|


मंत्र जप और स्वास्थ्य 

लगातार मंत्र जप करने से उछ रक्तचाप, गलत धारणायें, गंदे विचार आदि समाप्त हो जाते हैं| मंत्र जप का साइड इफेक्ट (Side Effect) यही है|
मंत्र में विद्यमान हर एक बीजाक्षर शरीर की नसों को उद्दिम करता है, इससे शरीर में रक्त संचार सही ढंग से गतिशील रहता है|
"क्लीं ह्रीं" इत्यादि बीजाक्षरों का एक लयात्मक पद्धति से उच्चारण करने पर ह्रदय तथा फेफड़ों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है व् उनके विकार नष्ट होते हैं|

जप के लिये ब्रह्म मुहूर्त को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि उस समय पूरा वातावरण शान्ति पूर्ण रहता है, किसी भी प्रकार का कोलाहर या शोर नहीं होता| कुछ विशिष्ट साधनाओं के लिये रात्रि का समय अत्यंत प्रभावी होता है| गुरु के निर्देशानुसार निर्दिष्ट समय में ही साधक को जप करना चाहिए| सही समय पर सही ढंग से किया हुआ जप अवश्य ही फलप्रद होता है|


अपूर्व आभा

मंत्र जप करने वाले साधक के चेहरे से एक अपूर्व आभा आ जाति है| आयुर्वेद की दृष्टि से देखा जाय, तो जब शरीर शुद्ध और स्वास्थ होगा, शरीर स्थित सभी संस्थान सुचारू रूप से कार्य करेंगे, तो इसके परिणाम स्वरुप मुखमंडल में नवीन कांति का प्रादुर्भाव होगा ही|

जप माला 

जप करने के लिए माला एक साधन है| शिव या काली के लिए रुद्राक्ष माला, हनुमान के लिए मूंगा माला, लक्ष्मी के लिए कमलगट्टे की माला, गुरु के लिए स्फटिक माला - इस प्रकार विभिन्न मंत्रो के लिए विभिन्न मालाओं का उपयोग करना पड़ता है|

मानव शरीर में हमेशा विद्युत् का संचार होता रहता है| यह विद्युत् हाथ की उँगलियों में तीव्र होता है| इन उँगलियों के बीच जब माला फेरी जाती है, तो लयात्मक मंत्र ध्वनि (Rythmic sound of the Hymn) तथा उँगलियों में माला का भ्रमण दोनों के समन्वय से नूतन ऊर्जा का प्रादुर्भाव होता है|


जप माला के स्पर्श (जप के समय में) से कई लाभ हैं - 

* रुद्राक्ष से कई प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं|
* कमलगट्टे की माला से शीतलता एव अआनंद की प्राप्ति होती है|
* स्फटिक माला से मन को अपूर्व शान्ति मिलती है|

दिशा 

दिशा को भी मंत्र जप में आत्याधिक महत्त्व दिया गया है| प्रत्येक दिशा में एक विशेष प्रकार की तरंगे (Vibrations) प्रवाहित होती रहती है| सही दिशा के चयन से शीघ्र ही सफलता प्राप्त होती है|

जप-तप

जप में तब पूर्णता आ जाती है, पराकाष्टा की स्थिति आ जाती है, उस 'तप' कहते हैं| जप में एक लय होता है| लय का सरथ है ध्वनि के खण्ड| दो ध्वनि खण्डों की बीच में निःशब्दता है|  इस  निःशब्दता पर मन केन्द्रित करने की जो कला है, उसे तप कहते हैं| जब साधक तप की श्तिति को प्राप्त करता है, तो उसके समक्ष सृष्टि के सारे रहस्य अपने आप अभिव्यक्त हो जाते हैं| तपस्या में परिणति प्राप्त करने पर धीरे-धीरे हृदयगत अव्यक्त नाद सुनाई देने लगता है, तब वह साधक उच्चकोटि का योगी बन जाता है| ऐसा साधक गृहस्थ भी हो सकता है और संन्यासी भी|

कर्म विध्वंस 

मनुष्य को अपने जीवन में जो दुःख, कष्ट, दारिद्य, पीड़ा, समस्याएं आदि भोगनी पड़ती हैं, उसका कारण प्रारब्ध है| जप के माध्यम से प्रारब्ध को नष्ट किया जा सकता है और जीवन में सभी दुखों का नाश कर, इच्छाओं को पूर्ण किया जा सकता है, इष्ट देवी या देवता का दर्शन प्राप्त किया जा सकता है|

गुरु उपदेश 

मंत्र को सदगुरू के माध्यम से ही ग्रहण करना उचित होता है| सदगुरू ही सही रास्ता दिखा सकते हैं, मंत्र का उच्चारण, जप संख्या, बारीकियां समझा सकते हैं, और साधना काल में विपरीत परिश्तिती आने पर साधक की रक्षा कर सकते हैं|

साधक की प्राथमिक अवशता में सफलता व् साधना की पूर्णता मात्र सदगुरू की शक्ति के माध्यम से ही प्राप्त होती है| यदि साधक द्वारा अनेक बार साधना करने पर भी सफलता प्राप्त न हो, तो सदगुरू विशेष शक्तिपात द्वारा उसे सफलता की मंजिल तक पहुंचा देते हैं|


इस प्रकार मंत्र जप के माध्यम से नर से नारायण बना जा सकता है, जीवन के दुखों को मिटाया जा सकता है तथा अदभुद आनन्द, असीम शान्ति व् पूर्णता को प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि मंत्र जप का अर्थ मंत्र कुछ शब्दों को रतना है, अपितु मंत्र जप का अर्थ है - जीवन को पूर्ण बनाना|

पापांकुशा साधना

पापांकुशा साधना

 
यावत् जीवेत सुखं जीवेत |
सर्वं पापं विनश्यति ||

प्रत्येक जीव विभिन्न योनियों से होता हुआ निरन्तर गतिशील रहता है| हलाकि उसका बाहरी चोला बार-बार बदलता रहता है, परन्तु उसके अन्दर निवास करने वाली आत्मा शाश्वत है, वह मार...
ती नहीं हैं, अपितु भिन्न-भिन्न शरीरों को धारण कर आगे के जीवन क्रम की ओर गतिशील रहती है|

जो कार्य जीव द्वारा अपनी देह में होता है, उसे कर्म कहते हैं और उसके सामान्यतः दो भेद हैं - शुभ कर्म यानी कि पुण्य तथा अशुभ कर्म अर्थात पाप| शुभ कर्म या पुण्य वह होता है, जिसमे हम किसी को सुख देते हैं, किसी की भलाई करते हैं और अशुभ कर्म वह होता है, जिसमें हमारे द्वारा किसी को दुःख प्राप्त होता है, जिसमें हमारे द्वारा किसी को संताप पहुंचता हैं|

मानव योनी ही एक ऐसे योनि है, जिसमें वह अन्य कर्मों को संचित करता रहता है| पशु आदि तो बस पूर्व कर्मों के अनुसार जन्म ले कर ही चलते रहते हैं, वे यह नहीं सोचते, कि यह कार्य में कर रहा हूं या मैं इसको मार रहा हूं| अतः उनके पूर्व कर्म तो क्षय होते रहते हैं, परन्तु नवीन कर्मों का निर्माण नहीं होता; जबकि मनुष्य हर बात में 'मैं' को ही सर्वोच्चता प्रदान करता हैं... और चूंकि वह प्रत्येक कार्य का श्रेय खुद लेना चाहता है, अतः उसका परिणाम भी उसे ही भुगतना पड़ता है|

मनुष्य जीवन और कर्म

मनुष्य जीवन में कर्म को शास्त्रीय पद्धति में तीन भागों में बांटा गया है -

१. संचित
२. प्रारब्ध
३. आगामी (क्रियमाण)

'संचित कर्म' वे होते हैं, जो जीव ने अपने समस्त दैहिक आयु के द्वारा अर्जित किये हैं और जो वह अभी भी करता जा रहा है|

'प्रारब्ध' का अर्थ है, जिन कर्मों का फल अभी गतिशील हैं, उसे वर्त्तमान में भोगा जा रहा हैं|

'आगामी' का अर्थ है, वे कर्म, जिनका फल अभी आना शेष है|

इन तीनो कर्मों के अधीन मनुष्य अपना जीवन जीता रहता है| प्रकृति के द्वारा ऐसी व्यवस्था तो रहती है, कि उसके पूर्व कर्म संचित रहें, परन्तु दुर्भाग्य यह है, कि मनुष्य को उसके नवीन कर्म भी भोगने पड़ते हैं, फलस्वरूप उसे अनंत जन्म लेने पड़ते हैं| परन्तु यह तो एक बहुत ही लम्बी प्रक्रिया है, और इसमें तो अनेक जन्मों तक भटकते रहना पड़ता है|

परन्तु एक तरीका है जिससे व्यक्ति अपने छल, दोष, पाप को समूल नष्ट कर सकता है, नष्ट ही नहीं कर सकता अपितु भविष्य के लिए अपने अन्दर अंकुश भी लगा सकता है, जिससे वह आगे के जीवन को पूर्ण पवित्रता युक्त जी सके, पूर्ण दिव्यता युक्त जी सके और जिससे उसे फिर से कर्मों के पाश में बंधने की आवश्यकता नहीं पड़े|

साधना : एकमात्र मार्ग

...और यह तरीका, यह मार्ग है साधना का, क्योंकि साधना का अर्थ ही है, कि अनिच्छित स्थितियों पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर अपने जीवन को पूरी तरह साध लेना, इस पर पूरी तरह से अपना नियंत्रण कायम कर लेना|

यदि यह साधना तंत्र मार्ग के अनुसार हो, तो इससे श्रेष्ठ कुछ हो ही नहीं सकता, इससे उपयुक्त स्थिति तो और कोई हो ही नहीं सकती, क्योंकि स्वयं शिव ने 'महानिर्वाण तंत्र' में पार्वती को तंत्र की विशेषता के बारे में समझाते हुए बताया है -

कल्किल्मष दीनानां द्विजातीनां सुरेश्वरी |

मध्या मध्य विचाराणां न शुद्धिः श्रौत्कर्मणा ||

न संहिताध्यैः स्र्मुतीभिरष्टसिद्धिर्नुणां भवेत् |

सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्य सत्यं मयोच्यते ||

विनाह्यागम मार्गेण कलौ नास्ति गतिः प्रिये |

श्रुतिस्मृतिपुराणादी मयैवोक्तं पूरा शिवे ||

आगमोक्त विधानेन कलौ देवान्यजेत्सुधिः ||

- ही देवी! कलि दोष के कारण ब्राह्मण या दुसरे लोग, जो पाप-पुण्य का विचार करते हैं, वे वैदिक पूजन की विधियों से पापहीन नहीं हो सकते| मैं बार बार सत्य कहता हूं, कि संहिता और स्मृतियों से उनकी आकांक्षा पूर्ण नहीं हो सकती| कलियुग में तंत्र मार्ग ही एकमात्र विकल्प है| यह सही है, कि वेद, पुराण, स्मृति आदि भी विश्व को किसी समय मैंने ही प्रदान किया था, परन्तु कलियुग में बुद्धिमान व्यक्ति तंत्र द्वारा ही साधना कर इच्छित लाभ पाएगा|

इससे स्पष्ट होता है, कि तंत्र साधना द्वारा व्यक्ति अपने पाप पूर्ण कर्मों को नष्ट कर, भविष्य के लिए उनसे बन्धन रहित हो सकते हैं| वैसे भी व्यक्ति यदि जीवन में पूर्ण दरिद्रता युक्त जीवन जी रहा है या यदि वह किसी घातक बीमारी के चपेट में है, जो कि समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही हो, तो यह समझ लेना चाहिए, कि उसके पाप आगे आ रहे है ...

नीचे मैं कुछ स्थितियां स्पष्ट कर रहा हूं, जो कि व्यक्ति के पूर्व पापों के कारण जीवन में प्रवेश करती हैं --

१. घर में बार-बार कोई दुर्घटना होना, आग लगना, चोरी होना आदि |

२. पुत्र या संतान का न होना, या होने पर तुरंत मर जाना |

३. घर के सदस्यों की अकाल मृत्यु होना |

४. जो भी योजना बनायें, उसमें हमेशा नुकसान होना |

५. हमेशा शत्रुओं का भय होना|

६. विवाह में अत्यंत विलम्ब होना या घर में कलह पूर्ण वातावरण, तनाव आदि|

७. हमेशा पैसे की तंगी होना, दरिद्रतापूर्ण जीवन, बीमारी और अदालती मुकदमों में पैसा पानी की तरह बहना|

ये कुछ स्थितियां हैं, जिनमें व्यक्ति जी-जान से कोशिश करने के उपरांत भी यदि उन पर नियंत्रण नहीं प्राप्त कर पाता, तो समझ लेना चाहिए, कि यह पूर्व जन्म कर्मों के दोष के कारण ही घटित हो रहा है| इसके लिये फिर उन्हें साधना का मार्ग अपनाना चाहिए, जिसके द्वारा उसके समस्त दोष नष्ट हो सकें और वह जीवन में सभी प्रकार से वैभव, शान्ति और श्रेष्ठता प्राप्त कर सके|
 

                                                          पापांकुशा साधना


 ऐसी ही एक साधना है पापांकुशा साधना, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन में व्याप्त सभी प्रकार के दोषों को - चाहे वह दरिद्रता हो, अकाल मृत्यु हो, बीमारी हो या चाहे और कुछ हो, उसे पूर्णतः समाप्त कर सकता है और अब तक के संचित पाप कर्मों को पूर्णतः नष्ट करता हुआ भविष्य के लिए भी उनके पाश से मुक्त हो जाता है, उन पर अंकुश लगा पाता है |

इस साधना को संपन्न करने से व्यक्ति के जीवन में यदि ऊपर बताई गई स्थितियां होती है, तो वे स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं| वह फिर दिनों-दिन उन्नति की ओर अग्रसर होने लग जाता है, इच्छित क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है और फिर कभी भी, किसी भी प्रकार की बाधा का सामना उसे अपने जीवन में नहीं करना पड़ता|

यह साधना अत्याधिक उच्चकोटि की है और बहुत ही तीक्ष्ण है| चूंकि यह तंत्र साधना है, अतः इसका प्रभाव शीघ्र देखने को मिलता है| यह साधना स्वयं ब्रह्म ह्त्या के दोष से मुक्त होने के लिए एवं जनमानस में आदर्श स्थापित करने के लिए कालभैरव ने भी संपन्न की थी ... इसी से साधना की दिव्यता और तेजस्विता का अनुमान हो जाता है ....

यह साधना तीन दिवसीय है, इसे पापांकुशा एकादशी से या किसी भी एकादशी से प्रारम्भ करना चाहिए| इसके लिए 'समस्त पाप-दोष निवारण यंत्र' तथा 'हकीक माला' की आवश्यकता होती है|

सर्वप्रथ साधक को ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर स्नान आदि से निवृत्त हो कर, सफेद धोती धारण कर, पूर्व दिशा की ओर मूंह कर बैठना चाहिए और अपने सामने नए श्वेत वस्त्र से ढके बाजोट पर 'समस्त पाप-दोष निवारण यंत्र' स्थापित कर उसका पंचोपचार पूजन संपन्न करना चाहिए| 'मैं अपने सभी पाप-दोष समर्पित करता हूं, कृपया मुझे मुक्ति दें और जीवन में सुख, लाभ, संतुष्टि प्रसन्नता आदि प्रदान करें' - ऐसा कहने के साथ यदि अन्य कोई इच्छा विशेष हो, तो उसका भी उच्चारण कर देना चाहिए| फिर 'हकीक' से निम्न मंत्र का २१ माला मंत्र जप करना चाहिए --


|| ॐ क्लीं ऐं पापानि शमय नाशय ॐ फट ||



यह मंत्र अत्याधिक चैत्यन्य है और साधना काल में ही साधक को अपने शरीर का ताप बदला मालूम होगा| परन्तु भयभीत न हों, क्योंकि यह तो शरीर में उत्पन्न दिव्याग्नी है, जिसके द्वारा पाप राशि भस्मीभूत हो रही है| साधना समाप्ति के पश्चात साधक को ऐसा प्रतीत होगा, कि उसका सारा शरीर किसी बहुत बोझ से मुक्त हो गया है, स्वयं को वह पूर्ण प्रसन्न एवं आनन्दित महसूस करेगा और उसका शरीर फूल की भांति हल्का महसूस होगा |

जो साधक अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें तो यह साधना अवश्य ही संपन्न करने चाहिए, क्योंकि जब तक पाप कर्मों का क्षय नहीं हो जाता, व्यक्ति की कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो ही नहीं सकती और न ही वह समाधि अवस्था को प्राप्त कर सकता है|

साधना के उपरांत यंत्र तथा माला को किसी जलाशय में अर्पित कर देना चाहिए| ऐसा करने से साधना फलीभूत होती है और व्यक्ति समस्त दोषों से मुक्त होता हुआ पूर्ण सफलता अर्जित कर, भौतिक एवं अध्यात्मिक, दोनों मार्गों में श्रेष्टता प्राप्त करता है| इसलिए साधक को यह साधना बार बार संपन्न करनी है, जब तक कि उसे अपने कार्यों में इच्छित सफलता मिल न पाये|

गुरु-पुष्य नक्षत्र कि महत्वता

क्या ऐसा कोई योग है जिसमें  किसी भी साधना में निश्चित सफलता मिलती ही है ?
क्या ऐसा कोई दिन है जब व्यापार/शुभ कार्यादी करें तो उसमें हर हाल में उन्नति होती है ??
क्या ऐसा भी कोई अवसर है, जो अक्षय तृतीय एवं धनतेरस के बराबर महत्व रखता है ?

 गुरु-पुष्य नक्षत्र कि महत्वता को दर्शाता ये महत्वपूर्ण लेख -


‘पाणिनी संहिता’ में “पुष्य सिद्धौ नक्षत्रे” के बारे में यह लिखा है-

सिध्यन्ति अस्मिन् सर्वाणि कार्याणि सिध्यः |
पुष्यन्ति अस्मिन् सर्वाणि कार्याणि इति पुष्य ||

अर्थात पुष्य नक्षत्र में शुरू किये गए सभी कार्य सिद्ध होते ही हैं.. फलीभूत होते ही हैं |
पुष्य शब्द का अर्थ ही है कि जो अपने आप में परिपूर्ण है.. सबल है.. पूर्ण सक्षम और पुष्टिकारक है..| हिंदी शब्दकोष में ‘पुष्टी’ शब्द का निर्माण संस्कृत के इसी पुष्य शब्द से हुआ | २७ नक्षत्रों में से एक ‘पुष्य नक्षत्र’ है, और इस दिन जब गुरुवार भी हो तो उसे गुरु पुष्य नक्षत्र या ‘गुरु पुष्यामृत योग’ कहते हैं | इस दिन कोई भी साधना अवश्य शुरू करें, और आँख मूँद कर उसकी सिद्धि का यकीन करें और पूर्ण तन्मयता के साथ सहना संपन्न करें | गरूर साधना और गुरु पूजन तो प्रत्येक शिष्य को इस दिन करना अनिवार्य ही है |

पूज्य गुरुदेव ने गुरु पुष्य की विशेषता स्पष्ट करते हुए कहा है, कि सभी योग विरुद्ध हों, तो भी पुष्य नक्षत्र में किया गया कार्य सिद्ध हो जाता है | पुष्य नक्षत्र अन्य सभी योगों के दोषों को दूर कर देता है, और पुष्य के गुण किसी भी दुर्योग द्वारा नष्ट नहीं हो सकते !


गुरु पुष्य में कौन सी साधना संपन्न करें ?

सामान्य लोग इस दिन स्वर्ण खरीदते हैं, यदि धनतेरस के दिन स्वर्ण/रजत नहीं खरीद पाए तो इस दिन खरीद सकते हैं, इससे भी निरंतर श्री वृद्धि होती रहती है | इसके साथ ही कोई नई वस्तु, नया कारोबार, वाहन गृह प्रवेश आदि कर सकते हैं, इस दिन जो भी खरीदते हैं वह स्थायी संपत्ति सिद्ध होती है |

साधकों को इस दिन लक्ष्मी या श्री से सम्बंधित साधना करनी चाहिए | साथ ही किसी भी प्रकार की साधना चाहे सौन्दर्य से सम्बंधित हो, कार्य सिद्धि हो, विद्या प्राप्ति के लिए हो, कर सकते हैं | 
इस दिन आप किसी भी यन्त्र का लेखन करके उसको प्राण-प्रतिष्ठित कर सकते हैं | इस दिन आप किसी भी रत्न को सिद्ध कर सकते हैं | 

शिष्यों को इस दिन गुरु पूजन और गुरु मंत्र का जप अवश्य करना चाहिए |

गुरु पुष्य में क्या ‘नहीं’ करना चाहिए ?

सभी शुभ कार्यों को इस दिन संपन्न किया जा सकता है, केवल एक को छोड़कर..... ‘विवाह संस्कार’..
शाश्त्रों में उल्लेखित है कि एक श्राप के अनुसार इस दिन किया हुआ विवाह कभी भी सुखकारक नहीं हो सकता | माता सीता का प्रभु राम से विवाह इसी योग में हुआ था |


आखिर इस योग के सिद्धिदायक होने के पीछे रहस्य क्या है ??

इसका कारण यह है कि इस विशेष योग में जो नक्षत्र आकाश मंडल में मौजूद होता है, पुष्य नक्षत्र, इसके स्वामी ग्रह शनि हैं | शनि ग्रह स्थायित्व प्रदान करने वाले हैं.. इनकी चाल अत्यंत धीमी होती है, जो भी Astronomical Science के student हैं वे इस बात को भली प्रकार से जानते ही होंगे | और इस दिन गुरुवार हो, तो, गुरु जो स्वर्ण, धन, ज्ञान के प्रतीक हैं, और सर्व सिद्धिदायक हैं, जो सभी ग्रहों में सर्वाधिक शुभ फल दी वाले हैं, इनके प्रभाव से प्रत्येक कार्य सिद्ध भी होता है.. और शनि के कारण स्थायी भी होता है |
शनि एकांत प्रदान करते हैं, जो कि साधना के लिए आवश्यक अंग है |

रत्न प्राण-प्रतिष्ठा

जिस रत्न को आपने धारण किया हुआ है, क्या उसमें उस ग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा हुई है ????
तो ज़रा मुझे कोई समझाना, कि जिस ग्रह देव को आपने हाँथ में पहना हुआ है, उसका आवाहन आपने उस पत्थर में नहीं किया, आपने उन्हें वहां विराजने को नहीं कहा, उन्हें स्थान दिया ही नहीं, तो वह रत्न रत्न कहलायेगा कैसे, वह तो एक पत्थर का टुकड़ा हुआ. वह कभी कभार संयोग से आपको अच्छा फल दे जाता होगा, बस !

इसके लिए हमें वह अति दुर्लभ रत्न प्राण-प्रतिष्ठा विधि ज्ञात होनी चाहिए, सदगुरुदेव द्वारा लिखित पुस्तक रत्न-ज्योतिष से मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, आपकी सुविधा के लिए-

 “किसी भी ग्रह के रत्न में जब तक उस ग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं की जाती वह रत्न व्यर्थ-सा होता है तथा उसके पहनने से कोई प्रभाव उत्पन्न नहीं होता, क्यूंकि केवल पत्थर तो पत्थर ही है, अतः रत्न धारण करने वाले को चाहिए कि शुभ मुहूर्त में यज्ञ के साथ प्राण-प्रतिष्ठा करवाके धारण करे | 

सर्वप्रथम रत्न धारण करने वाला स्नान कर, पूर्व की तरफ मुँह कर काम, क्रोध, लोभादि को छोड़ बैठ जावे एवं दाहिने हाँथ में जल, कुंकुम. अक्षत, दूर्वा, एवं दक्षिणा लेकर संकल्प करे- 

“ ॐ विष्णु विष्णु विष्णुः श्रीमद्भगवतो  महापुरुषस्य विष्णोराज्ञा प्रवर्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मणो द्वितीय परार्धे श्री श्वेत वाराह कल्पे सप्तमे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति में कलियुगे कलिप्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखंडे जम्बू द्वीपे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेक देशे (जगह का नाम) क्षेत्रे, बौद्धावतारे, (साल की संख्या) संवत्सरे, (अमुक) नक्षत्रे, (अमुक) राशिस्थिते सूर्य चन्द्र देवगुरो शेषेसु ग्रहेषु यथायथा स्थानस्थितेसु सत्सु एवं ग्रह गुण विशेषण विशिष्टतायाम पुण्यतिथौ (अमुक) गोत्रो (अमुक) शर्माऽहं ममात्मन श्रुतिस्मृति पुराणोक्त फल्वाप्त्ये ममकलत्रादिभिः सः सकलाधि व्यादि निरसन पूर्वक दीर्घायुष्य बलपुष्टि नेरुज्यादि (अमुक) ग्रह सम्बन्धे (अमुक) रत्ने प्राण-प्रतिष्ठा सिध्यर्थ करिष्ये |

इसके पश्चात हाँथ में जल अक्षत लेकर प्राण-प्रतिष्ठा मंत्र पढ़ें- 

ततो जलेन प्रक्षाल्य प्राण-प्रतिष्ठा कुर्यात् || प्रतिमायाः कपलौ दक्षिण पाणिना स्पष्टवा मन्त्राः पठनीयाः || अस्य श्री प्राण-प्रतिष्ठा मंत्रस्य विष्णुरुद्रौ ऋषी ॠृग्यजुः सामानिच्छदांसि प्राणख्या देवता || ॐ आं बीजं ह्रीं शक्तिः क्रों कीलकं यं रं वं शं षं सं हं सः एतः शक्तयः मूर्ति प्रतिष्ठापन विनियोगः || ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं हं सः देवस्य प्राणाः इस प्राणाः पुरूच्चार्य देवस्य सर्वेनिन्द्रयाणी इहः | पुनरुच्चार्य देवस्य वाङ् मनश्चक्षुः श्रोत्र घ्राणानि इहागत्य सुखेन चिरं तिष्ठतु स्वाहा || प्राण-प्रतिष्ठा विधाय ध्यायेत || ववं प्राण-प्रतिष्ठा कृत्वा पंचोपचारै पूजयेत् ||"

इस प्रकार उस विधि-विधान से रत्न की प्राण-प्रतिष्ठा कर मुद्रिका का पूजन करने के पश्चात उसे धारण करें |

ऐश्वर्य प्रदायक तांत्रोक्त शुक्र साधना-

"गुरुदेव.... कल फिर मेरे साथ वही घटना घटित हुयी है आखिर मेरा 
क्या दोष है ?? पूर्ण मनोयोग से मैं पिछले कई वर्षों से ये
साधना कर रहा हूँ पर जब भी मैं सफलता के निकट पहुचता हूँ 
हर बार
बस वही घटना घटित हो जाती है
आखिर किन कर्मों का फल मैं भुगत रहा हूँ क्या कमी है मेरी साधना में ?"


शिवमेश भाई सदगुरुदेव के चरणों से लिपट कर रोते हुए कह रहे थेना तो उनकी सिसकियाँ बंद हो रही थी और न ही उनका प्रलाप.

मैं दरवाजे पर खड़ा था और गुरुदेव ने मुझे पानी का गिलास लेकर भीतर बुलाया थामैं पानी का गिलास लेकर जब भीतर पंहुचा तो ये आवाज मेरे कानों में पड़ीवे रोते हुए कह रहे थे – हे गुरुदेव न तो कभी मैं विषय वासनाओं का चिंतन ही करता हूँ और न ही कभी कोई तामसिक आहार का सेवन ही मैंने किया हैमैं स्वयं पाकी (खुद भोजन बनाकर खाने वालाहूँ तो जब ऐसी कोई गलती मैंने की ही नहीं तब  साधना के मध्य कामुक चिंतन और स्वप्नदोष कैसे संभव है???? और जब भी मैं साधना के अंतिम चरण की और अग्रसर होता हूँ ये क्रम घटित होने लगता है.
पिछले १७ वर्षों से मैं इस स्वप्न को साकार करने में लगा हूँ और हर बार माँ ललिताम्बा का प्रत्यक्षीकरण बस स्वप्न ही बन के रह जाता हैब्रह्माण्ड स्तम्भनब्रह्माण्ड भेदन  और अष्टादश सिद्धियाँ तो मेरा सपना ही रह जाएँगीअब मुझे इस जीवन से कोई मोह नहीं है,मैं इस शरीर को नष्ट कर देना चाहता हूँ.....
बच्चों के जैसे बाते मत करो..” सदगुरुदेव ने डपटते हुए कहा .
  

तुम जिस सफलता को पाना चाहते हो  उसके लिए साधक अपना जीवन लगा देते हैं क्या ब्रहमांड भेदन इतना सहज विषय है की बस उठे और हाथ बढाकर उसे वृक्ष से तोड़ लियाअरे जब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की क्रियाओं में ही आपका हस्तक्षेप हो जाये तो भला बाकी क्या रह जाता है .

     

तो फिर मैं क्या करूं ??


अच्छा बताओ, मानव जीवन के चार पुरुषार्थ कौन कौन से हैंसदगुरुदेव ने पूछा.


"जी
...... धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष !"



ठीकपर क्या तुम्हे पता है की मोक्ष का अर्थ मृत्यु कदापि नहीं होता वास्तव में मोक्ष को लेकर भ्रांतियों के शिकार हैं सभीमोक्ष तो समस्त इच्छाओं के पूर्ण होने पर पूर्ण तृप्त होने की क्रिया है जहाँ पर कोई वासनाकोई चाह शेष न रह जायेपर हम तो भ्रम जाल में फँसे हुए हैंऔर मनुष्य जब साधक बनकर पूर्णत्व अर्थात मोक्ष के मार्ग पर बढ़ता है तो उसकी अपनी सहचरी ये प्रकृति उस परम लक्ष्य तक पहुचने के पहले उसे भली भांति परख लेती हैऔर तुम्हे पता है ये परीक्षा कहाँ होती है ??


जी मुझे नहीं पता ...



देखो हमारी सभी शक्तियाँ और हमारी कमजोरियां हमारे भीतर ही होती है हैं ना.

जी बिलकुल है .
तब क्या तुम्हे ये नहीं पता की शास्त्र क्या कहते हैं. शास्त्र का ही उद्घोष है “ यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे” अर्थात जो कुछ हमारे भीतर है वही इस बाह्यागत ब्रह्माण्ड में दिखाई पड़ता हैऔर जिस प्रकार प्रकृति की सुंदरता हमें बाहरी रूप से दिखती है उसी प्रकार  उसकी न्यूनता और सामर्थ्य हमारे भीतर ही होता है और तुम खुद ही सोचो जो हमारे भीतर होगा उसे किसी अन्य की अपेक्षा हमारे कमजोर पक्ष की कही ज्यादा जानकारी होगीपरन्तु प्रकृति का परिक्षण व्यक्ति विशेष के लिए भिन्न भिन्न प्रकार का होता है सामान्य मानव को उसकी दमित वासनाओं में उलझा कर वो लक्ष्य के बारे में सोचने का समय ही नहीं देती और एक आम इंसान अपने लालच का मटका भरते भरते ही इस जीवन से चला जाता हैपरन्तु जब कोई अपनी नियति को प्राप्त करने की और कदम बढाता है तो उसे सबसे पहले इसी प्रकृति का विरोध झेलना पड़ता है.
भला ऐसा क्यों??
क्योंकि जब आप अपनी नियति अपने अस्तित्व को प्राप्त करने की और अग्रसर होते हो तो उसका अर्थ होता है पूर्णता को प्राप्त कर लेनाक्यूंकि विराटता सिर्फ श्री कृष्ण में ही नहीं बल्कि प्रत्येक मनुष्य में निवास करती हैऔर अपने अस्तित्व को जान लेने का अर्थ ही होता है अपनी विराटता को समझ लेना.तब ऐसा क्या है जो हम संभव नहीं कर सकतेऐसा क्या है जो हमारी इच्छा मात्र से हमें प्राप्त नहीं हो सकता तब प्रकृति आपकी सहचरी बनती है न की स्वामीपरन्तु तब भी वो विराट  मानव प्रकृति के नियमों की अवहेलना नहीं करता क्योंकि विराट  भाव मिलने का दूसरा अर्थ पूर्ण विवेक की प्राप्ति भी तो होता है परन्तु ये इतना सहज नहीं होताक्योंकि जन्म के साथ ही मानव प्रकृति के चक्र में फँस जाता हैया ये कह लो की हमारे जन्म के पहले ही प्रकृति को ज्ञात होता है की हम क्या बनेंगेतब उसके लिए तो रास्ता आसान हो जाता है .
वो कैसे ??
 क्योंकि हमारा जीवन प्रकृति की उन्ही शक्तियों में से एक नवग्रहों के अधीन हैं और ये नवग्रह ही उन चारो पुरुषार्थों  के प्रतिनिधि हैंऔर सामान्य ज्योतिष इन बातों को नहीं समझ सकता इसके लिए ही तो जीवन में सद्गुरु की आवश्यकता होती है.
   वे ही बता सकते हैं की कौन सा ग्रह तुम्हारे लिए प्रतिकूल है और कौन सा अनुकूलपर धर्म पथ पर या मोक्ष के मार्ग में जो सबसे बड़ा व्यवधान होता है वो होता है काम भाव का अति आवेग वो भी साधना के दिनों में और हद तो तब होती है जब वो आवेग साधनात्मक इष्ट समबन्धित देवी देवता  और यहाँ तक की गुरु के प्रति भी हो जाता जाता है और यही पर साधक के बस में कुछ नहीं होताजहाँ जीवन में आर्थिक या अध्यात्मिक उन्नति का परिचायक शनि होता है ,वहीं पर उसकी दमित काम भावनाकुत्सित या सुप्त विचारसाधनाओं में व्यवधान के रूप में कामुक चिंतनस्वप्न दोष,आसन पर बैठने की क्षमता में न्यूनता,चित्त की बैचेनी और आसन स्खलन आदि का प्रतिनिधित्व शुक्र ग्रह करता है ,शुक्र स्त्री ग्रह हैसौंदर्य और प्रेम का प्रतीक है पर तभी तक जब तक उसकी शक्ति संतुलित है परन्तु ९७व्यक्तियों की कुंडली में ऐसा नहीं होता है वे शनि,मंगल अथवा राहू केतु की शक्ति को तो मानते हैं और उसका समाधान करने का भी प्रयत्न करते हैं पर शुक्र को तो गिनती में ही नहीं रखते अरे बारहवाँ भाव मोक्ष का तो है पर यदि उसमे शुक्र की पूर्ण संतुलित अंशों में निरापद उपस्थिति हो जाये तो ये सोने में सुहागा ही होगाअब हर कुंडली में तो ये नहीं हो सकता परन्तु यदि शुक्र को प्रयासपूर्वक व्यक्ति संतुलित कर ले  तो निश्चय व्यक्ति को इसके सकारात्मक परिणाम मिलते ही हैंयथा साधना में पूर्ण सफलता,प्रबल आकर्षण क्षमता,ऐश्वर्यविशुद्ध प्रेम की प्राप्ति और सबसे बड़ा काम भाव पर विजय,यदि सामान्य रूप से एक आम व्यक्ति भी इस साधना को संपन्न कर लेता है तो उसे भी अद्विय्तीय सुंदरता,पूर्ण ऐश्वर्य और विशुद्ध प्रेम की प्राप्ति होती ही है.यदि कोई स्त्री या पुरुष अपने आप को कुरूप मानता हो या सौंदर्य में वृद्धि करना चाहता हो तो ये एक अद्भुत प्रभावकारी साधना हैऔर तंत्र अपनी कमियों को स्वीकार कर विजय प्राप्त करने की ही क्रिया है,ना की उसका दमन करने कीतुम भोजन में सात्विकता बरत सकते हो पर तुम्हारे शरीरतुम्हारे चिंतन का जो प्रतिनिधित्व कर रहा है उसके लिए तुमने क्या कियाक्या कभी ये सोचा है तुम अकेले नहीं ८०साधक इसी बाधा में फस कर सफलता से कोसो दूर रहते हैं.
आपने मेरी आँखे खोल दीशिवमेश जी सदगुरुदेव के चरणों में गिर पड़े .
अब आप बताइए मैं इस क्रिया को कैसे संपन्न करूँ.
देखो शिवमेश  हो सकता है की हमें लगता हो की हमारे जन्मचक्र में ग्रह अनुकूल बैठा है पर वास्तव में ऐसा नहीं होता है .आज जो जन्मकुंडली का स्वरुप समाज में प्रचलित है वही मतभेद में घिरा हुआ है ,किसे जन्म समय मानें यही स्पष्ट नहीं है तो कुंडली का सही निर्माण और विवेचना कैसे संभव होगी.और मानव के जीवन में सिर्फ इस जीवन का नहीं बल्कि पिछले जीवनों का भी प्रभाव रहता है  क्योंकि ये तो एक श्रृंखला है जो उत्पत्ति से अभी तक चली आ रही हैहो सकता है की आज तुम्हारा शुक्र अनुकूल हो पर विगत किसी जीवन में तुम उसकी प्रतिकूलता से पीड़ित रहे हो तब ऐसी दशा में उसका साधनात्मक परिहार कर लेना कही ज्यादा बेहतर रहता है ऐसे में वो तुम्हारी साधना में बाधा भी नहीं बनेगा उलटे तुम्हे अनुकूलता देकर तुम्हारे अभीष्ट को भी दिलवाएगाप्रत्येक साधक को अपने जीवन में इस साधना को एक बार अवश्य कर लेना चाहिए और हो सके तो अपने साधना जीवन के प्रारंभ में ही ऐसा कर लेने पर कही ज्यादा अनुकूलता होती है और इस साधना को कोई भी कर सकता है ये विचार करने की कोई आवशयकता नहीं की हमारी कुंडली में शुक्र या अन्य ग्रहों की क्या स्थिति है.
  इतना कहकर सदगुरुदेव ने इस साधना का विधान उन्हें बता दिया और उन्हें प्रणाम और श्रृद्धा अर्पित कर शिवमेश वह से प्रसन्न मन से चले गए.
  गुरुदेव अब ये पानी ?????
अब इसकी कोई जरुरत नहीं सदगुरुदेव ने मेरी तरफ देखकर मुस्कुराकर कहा .
   बाद में मैंने भी इस साधना को संपन्न कर इसके लाभ को प्राप्त किया और कई वर्षों बाद माँ कामाख्या पीठ में अचानक कालीदत्त शर्मा जी के यहाँ जब शिवमेश जी से मेरी मुलाकात हुयी तो उनका चेहरा सफलता के प्रकाश से जगमगा रहा थामेरे पूछने पर उन्होंने बताया की हाँ सदगुरुदेव के यहाँ से लौटने के बाद उन्होंने इसी साधना को किया और इसके बाद उस साधना को संपन्न किया तो माँ ललिताम्बा की वो अद्भुत साधना पहली बार में ही सफलतापूर्वक संपन्न हो गयी और मुझे वो सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो गयी जिनके लिए कई वर्षों से मैं साधना कर रहा था उन्होंने अपनी साधना शक्ति से कई अद्भुत कार्य भी करके मुझे दिखाएसदगुरुदेव ने जो विधान बताया था वो मैं नीचे वर्णित कर रहा हूँ.



अनिवार्य सामग्री सफ़ेद आसन व वस्त्र(साधक सफ़ेद धोती और सध्काएं सफ़ेद साडी का प्रयोग करे), ताम्र पत्र या रजत पत्र पर उत्कीर्ण चैतन्य और पूर्ण प्राण प्रतिष्ठित शुक्र यंत्र,सफ़ेद हकीक की मालाघृत दीपक,अक्षत सफ़ेद पुष्प(मोगरा मिल सके तो अतिउत्तम),खीर आदि.



प्रातः काल स्नान कर सफ़ेद धोती धारण कर पूजा स्थल में बैठे और आग्नेय (दक्षिण-पूर्वदिशा की और मुह कर बैठे ,पूर्व भी किया जा सकता हैसामने बाजोट पर सफ़ेद रेशमी वस्त्र बिछा ले और उस पर चावलों की ढेरी बनाकर उस पर शुक्र यंत्र की स्थापना कर ले हाथ में जल लेकर शुक्र साधना में पूर्ण सफलता प्राप्ति के लिए सदगुरुदेव और भगवान गणपति से प्रार्थना करेतत्पश्चात गुरु मंत्र की 4 और गणपति मन्त्र की 1 माला संपन्न करे इसके बाद शुक्र का ध्यान निम्न मन्त्र से करेऔर इस ध्यान मन्त्र को 5 बार उच्चारित करना है.



हिमकुंद मृणालाभं दैत्यानां परमं ब्रहस्पतिम्.
सर्वशास्त्र प्रवक्तारम् भार्गवं प्रणमाम्यहम् ..   
   

इसके बाद उस यंत्र को जल से स्नान करवा ले और अक्षत की ढेरी पर स्थापित कर उसका अक्षत,चन्दन की धूपबत्तीघृत दीपपुष्पनैवेद्य  आदि से पूजन करे.पूजन करते हुए-



ॐ शुं शुक्राय नमः अक्षतं समर्पयामी ,
ॐ शुं शुक्राय नमः पुष्पं समर्पयामी धूपं समर्पयामी .....
   

आदि कहते हुए पूजन करेतत्पश्चात निम्न मन्त्र की 51 माला जप करे और ये क्रम 14 दिनों तक करना है जिस्सके साधना में पूर्ण सफलता की प्राप्ति हो और सभी लाभ मिल सके.



ग्रहेष शुक्र मन्त्र - || ॐ स्त्रीम् श्रीं  शुक्राय नमः ||   

  

और प्रतिदिन जप के बाद मन्त्र के अंत में ‘स्वाहा लगाकर उपरोक्त मन्त्र के द्वारा सफ़ेद चन्दन बुरे की 21 आहुतियाँ डालेये नित्य प्रति का कर्म है ,जिसे 14 दिनों तक करना ही है ,इसके पश्चात जप पुनः एक माला गुरु मन्त्र की करके जप समर्पण कर आसन से उठ जाये.




अपने २४ वर्षों के साधनात्मक जीवन में मैं हजारों गुरुभाइयों और साधकों से मिला हूँ और उनमे से बहुतेरे को मैंने इन्ही समस्या से पीड़ित पाया है और इसी कारण मैं सदगुरुदेव से प्रार्थना कर उस अद्विय्तीय साधना को आप सभी के समक्ष रखा है ये विधान अभी तक गुप्त रखा गया थायदि आप इसे अपनाएंगे तो यकीन मानिये आपको कदापि निराश नहीं होना पड़ेगाअब मर्जी आपकी है.

-:गुरु स्तुति:-

-:गुरु स्तुति:- “गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः। गुरू साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः॥ अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं ...