Friday 14 July 2017

ऐश्वर्य प्रदायक तांत्रोक्त शुक्र साधना-

"गुरुदेव.... कल फिर मेरे साथ वही घटना घटित हुयी है आखिर मेरा 
क्या दोष है ?? पूर्ण मनोयोग से मैं पिछले कई वर्षों से ये
साधना कर रहा हूँ पर जब भी मैं सफलता के निकट पहुचता हूँ 
हर बार
बस वही घटना घटित हो जाती है
आखिर किन कर्मों का फल मैं भुगत रहा हूँ क्या कमी है मेरी साधना में ?"


शिवमेश भाई सदगुरुदेव के चरणों से लिपट कर रोते हुए कह रहे थेना तो उनकी सिसकियाँ बंद हो रही थी और न ही उनका प्रलाप.

मैं दरवाजे पर खड़ा था और गुरुदेव ने मुझे पानी का गिलास लेकर भीतर बुलाया थामैं पानी का गिलास लेकर जब भीतर पंहुचा तो ये आवाज मेरे कानों में पड़ीवे रोते हुए कह रहे थे – हे गुरुदेव न तो कभी मैं विषय वासनाओं का चिंतन ही करता हूँ और न ही कभी कोई तामसिक आहार का सेवन ही मैंने किया हैमैं स्वयं पाकी (खुद भोजन बनाकर खाने वालाहूँ तो जब ऐसी कोई गलती मैंने की ही नहीं तब  साधना के मध्य कामुक चिंतन और स्वप्नदोष कैसे संभव है???? और जब भी मैं साधना के अंतिम चरण की और अग्रसर होता हूँ ये क्रम घटित होने लगता है.
पिछले १७ वर्षों से मैं इस स्वप्न को साकार करने में लगा हूँ और हर बार माँ ललिताम्बा का प्रत्यक्षीकरण बस स्वप्न ही बन के रह जाता हैब्रह्माण्ड स्तम्भनब्रह्माण्ड भेदन  और अष्टादश सिद्धियाँ तो मेरा सपना ही रह जाएँगीअब मुझे इस जीवन से कोई मोह नहीं है,मैं इस शरीर को नष्ट कर देना चाहता हूँ.....
बच्चों के जैसे बाते मत करो..” सदगुरुदेव ने डपटते हुए कहा .
  

तुम जिस सफलता को पाना चाहते हो  उसके लिए साधक अपना जीवन लगा देते हैं क्या ब्रहमांड भेदन इतना सहज विषय है की बस उठे और हाथ बढाकर उसे वृक्ष से तोड़ लियाअरे जब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की क्रियाओं में ही आपका हस्तक्षेप हो जाये तो भला बाकी क्या रह जाता है .

     

तो फिर मैं क्या करूं ??


अच्छा बताओ, मानव जीवन के चार पुरुषार्थ कौन कौन से हैंसदगुरुदेव ने पूछा.


"जी
...... धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष !"



ठीकपर क्या तुम्हे पता है की मोक्ष का अर्थ मृत्यु कदापि नहीं होता वास्तव में मोक्ष को लेकर भ्रांतियों के शिकार हैं सभीमोक्ष तो समस्त इच्छाओं के पूर्ण होने पर पूर्ण तृप्त होने की क्रिया है जहाँ पर कोई वासनाकोई चाह शेष न रह जायेपर हम तो भ्रम जाल में फँसे हुए हैंऔर मनुष्य जब साधक बनकर पूर्णत्व अर्थात मोक्ष के मार्ग पर बढ़ता है तो उसकी अपनी सहचरी ये प्रकृति उस परम लक्ष्य तक पहुचने के पहले उसे भली भांति परख लेती हैऔर तुम्हे पता है ये परीक्षा कहाँ होती है ??


जी मुझे नहीं पता ...



देखो हमारी सभी शक्तियाँ और हमारी कमजोरियां हमारे भीतर ही होती है हैं ना.

जी बिलकुल है .
तब क्या तुम्हे ये नहीं पता की शास्त्र क्या कहते हैं. शास्त्र का ही उद्घोष है “ यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे” अर्थात जो कुछ हमारे भीतर है वही इस बाह्यागत ब्रह्माण्ड में दिखाई पड़ता हैऔर जिस प्रकार प्रकृति की सुंदरता हमें बाहरी रूप से दिखती है उसी प्रकार  उसकी न्यूनता और सामर्थ्य हमारे भीतर ही होता है और तुम खुद ही सोचो जो हमारे भीतर होगा उसे किसी अन्य की अपेक्षा हमारे कमजोर पक्ष की कही ज्यादा जानकारी होगीपरन्तु प्रकृति का परिक्षण व्यक्ति विशेष के लिए भिन्न भिन्न प्रकार का होता है सामान्य मानव को उसकी दमित वासनाओं में उलझा कर वो लक्ष्य के बारे में सोचने का समय ही नहीं देती और एक आम इंसान अपने लालच का मटका भरते भरते ही इस जीवन से चला जाता हैपरन्तु जब कोई अपनी नियति को प्राप्त करने की और कदम बढाता है तो उसे सबसे पहले इसी प्रकृति का विरोध झेलना पड़ता है.
भला ऐसा क्यों??
क्योंकि जब आप अपनी नियति अपने अस्तित्व को प्राप्त करने की और अग्रसर होते हो तो उसका अर्थ होता है पूर्णता को प्राप्त कर लेनाक्यूंकि विराटता सिर्फ श्री कृष्ण में ही नहीं बल्कि प्रत्येक मनुष्य में निवास करती हैऔर अपने अस्तित्व को जान लेने का अर्थ ही होता है अपनी विराटता को समझ लेना.तब ऐसा क्या है जो हम संभव नहीं कर सकतेऐसा क्या है जो हमारी इच्छा मात्र से हमें प्राप्त नहीं हो सकता तब प्रकृति आपकी सहचरी बनती है न की स्वामीपरन्तु तब भी वो विराट  मानव प्रकृति के नियमों की अवहेलना नहीं करता क्योंकि विराट  भाव मिलने का दूसरा अर्थ पूर्ण विवेक की प्राप्ति भी तो होता है परन्तु ये इतना सहज नहीं होताक्योंकि जन्म के साथ ही मानव प्रकृति के चक्र में फँस जाता हैया ये कह लो की हमारे जन्म के पहले ही प्रकृति को ज्ञात होता है की हम क्या बनेंगेतब उसके लिए तो रास्ता आसान हो जाता है .
वो कैसे ??
 क्योंकि हमारा जीवन प्रकृति की उन्ही शक्तियों में से एक नवग्रहों के अधीन हैं और ये नवग्रह ही उन चारो पुरुषार्थों  के प्रतिनिधि हैंऔर सामान्य ज्योतिष इन बातों को नहीं समझ सकता इसके लिए ही तो जीवन में सद्गुरु की आवश्यकता होती है.
   वे ही बता सकते हैं की कौन सा ग्रह तुम्हारे लिए प्रतिकूल है और कौन सा अनुकूलपर धर्म पथ पर या मोक्ष के मार्ग में जो सबसे बड़ा व्यवधान होता है वो होता है काम भाव का अति आवेग वो भी साधना के दिनों में और हद तो तब होती है जब वो आवेग साधनात्मक इष्ट समबन्धित देवी देवता  और यहाँ तक की गुरु के प्रति भी हो जाता जाता है और यही पर साधक के बस में कुछ नहीं होताजहाँ जीवन में आर्थिक या अध्यात्मिक उन्नति का परिचायक शनि होता है ,वहीं पर उसकी दमित काम भावनाकुत्सित या सुप्त विचारसाधनाओं में व्यवधान के रूप में कामुक चिंतनस्वप्न दोष,आसन पर बैठने की क्षमता में न्यूनता,चित्त की बैचेनी और आसन स्खलन आदि का प्रतिनिधित्व शुक्र ग्रह करता है ,शुक्र स्त्री ग्रह हैसौंदर्य और प्रेम का प्रतीक है पर तभी तक जब तक उसकी शक्ति संतुलित है परन्तु ९७व्यक्तियों की कुंडली में ऐसा नहीं होता है वे शनि,मंगल अथवा राहू केतु की शक्ति को तो मानते हैं और उसका समाधान करने का भी प्रयत्न करते हैं पर शुक्र को तो गिनती में ही नहीं रखते अरे बारहवाँ भाव मोक्ष का तो है पर यदि उसमे शुक्र की पूर्ण संतुलित अंशों में निरापद उपस्थिति हो जाये तो ये सोने में सुहागा ही होगाअब हर कुंडली में तो ये नहीं हो सकता परन्तु यदि शुक्र को प्रयासपूर्वक व्यक्ति संतुलित कर ले  तो निश्चय व्यक्ति को इसके सकारात्मक परिणाम मिलते ही हैंयथा साधना में पूर्ण सफलता,प्रबल आकर्षण क्षमता,ऐश्वर्यविशुद्ध प्रेम की प्राप्ति और सबसे बड़ा काम भाव पर विजय,यदि सामान्य रूप से एक आम व्यक्ति भी इस साधना को संपन्न कर लेता है तो उसे भी अद्विय्तीय सुंदरता,पूर्ण ऐश्वर्य और विशुद्ध प्रेम की प्राप्ति होती ही है.यदि कोई स्त्री या पुरुष अपने आप को कुरूप मानता हो या सौंदर्य में वृद्धि करना चाहता हो तो ये एक अद्भुत प्रभावकारी साधना हैऔर तंत्र अपनी कमियों को स्वीकार कर विजय प्राप्त करने की ही क्रिया है,ना की उसका दमन करने कीतुम भोजन में सात्विकता बरत सकते हो पर तुम्हारे शरीरतुम्हारे चिंतन का जो प्रतिनिधित्व कर रहा है उसके लिए तुमने क्या कियाक्या कभी ये सोचा है तुम अकेले नहीं ८०साधक इसी बाधा में फस कर सफलता से कोसो दूर रहते हैं.
आपने मेरी आँखे खोल दीशिवमेश जी सदगुरुदेव के चरणों में गिर पड़े .
अब आप बताइए मैं इस क्रिया को कैसे संपन्न करूँ.
देखो शिवमेश  हो सकता है की हमें लगता हो की हमारे जन्मचक्र में ग्रह अनुकूल बैठा है पर वास्तव में ऐसा नहीं होता है .आज जो जन्मकुंडली का स्वरुप समाज में प्रचलित है वही मतभेद में घिरा हुआ है ,किसे जन्म समय मानें यही स्पष्ट नहीं है तो कुंडली का सही निर्माण और विवेचना कैसे संभव होगी.और मानव के जीवन में सिर्फ इस जीवन का नहीं बल्कि पिछले जीवनों का भी प्रभाव रहता है  क्योंकि ये तो एक श्रृंखला है जो उत्पत्ति से अभी तक चली आ रही हैहो सकता है की आज तुम्हारा शुक्र अनुकूल हो पर विगत किसी जीवन में तुम उसकी प्रतिकूलता से पीड़ित रहे हो तब ऐसी दशा में उसका साधनात्मक परिहार कर लेना कही ज्यादा बेहतर रहता है ऐसे में वो तुम्हारी साधना में बाधा भी नहीं बनेगा उलटे तुम्हे अनुकूलता देकर तुम्हारे अभीष्ट को भी दिलवाएगाप्रत्येक साधक को अपने जीवन में इस साधना को एक बार अवश्य कर लेना चाहिए और हो सके तो अपने साधना जीवन के प्रारंभ में ही ऐसा कर लेने पर कही ज्यादा अनुकूलता होती है और इस साधना को कोई भी कर सकता है ये विचार करने की कोई आवशयकता नहीं की हमारी कुंडली में शुक्र या अन्य ग्रहों की क्या स्थिति है.
  इतना कहकर सदगुरुदेव ने इस साधना का विधान उन्हें बता दिया और उन्हें प्रणाम और श्रृद्धा अर्पित कर शिवमेश वह से प्रसन्न मन से चले गए.
  गुरुदेव अब ये पानी ?????
अब इसकी कोई जरुरत नहीं सदगुरुदेव ने मेरी तरफ देखकर मुस्कुराकर कहा .
   बाद में मैंने भी इस साधना को संपन्न कर इसके लाभ को प्राप्त किया और कई वर्षों बाद माँ कामाख्या पीठ में अचानक कालीदत्त शर्मा जी के यहाँ जब शिवमेश जी से मेरी मुलाकात हुयी तो उनका चेहरा सफलता के प्रकाश से जगमगा रहा थामेरे पूछने पर उन्होंने बताया की हाँ सदगुरुदेव के यहाँ से लौटने के बाद उन्होंने इसी साधना को किया और इसके बाद उस साधना को संपन्न किया तो माँ ललिताम्बा की वो अद्भुत साधना पहली बार में ही सफलतापूर्वक संपन्न हो गयी और मुझे वो सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो गयी जिनके लिए कई वर्षों से मैं साधना कर रहा था उन्होंने अपनी साधना शक्ति से कई अद्भुत कार्य भी करके मुझे दिखाएसदगुरुदेव ने जो विधान बताया था वो मैं नीचे वर्णित कर रहा हूँ.



अनिवार्य सामग्री सफ़ेद आसन व वस्त्र(साधक सफ़ेद धोती और सध्काएं सफ़ेद साडी का प्रयोग करे), ताम्र पत्र या रजत पत्र पर उत्कीर्ण चैतन्य और पूर्ण प्राण प्रतिष्ठित शुक्र यंत्र,सफ़ेद हकीक की मालाघृत दीपक,अक्षत सफ़ेद पुष्प(मोगरा मिल सके तो अतिउत्तम),खीर आदि.



प्रातः काल स्नान कर सफ़ेद धोती धारण कर पूजा स्थल में बैठे और आग्नेय (दक्षिण-पूर्वदिशा की और मुह कर बैठे ,पूर्व भी किया जा सकता हैसामने बाजोट पर सफ़ेद रेशमी वस्त्र बिछा ले और उस पर चावलों की ढेरी बनाकर उस पर शुक्र यंत्र की स्थापना कर ले हाथ में जल लेकर शुक्र साधना में पूर्ण सफलता प्राप्ति के लिए सदगुरुदेव और भगवान गणपति से प्रार्थना करेतत्पश्चात गुरु मंत्र की 4 और गणपति मन्त्र की 1 माला संपन्न करे इसके बाद शुक्र का ध्यान निम्न मन्त्र से करेऔर इस ध्यान मन्त्र को 5 बार उच्चारित करना है.



हिमकुंद मृणालाभं दैत्यानां परमं ब्रहस्पतिम्.
सर्वशास्त्र प्रवक्तारम् भार्गवं प्रणमाम्यहम् ..   
   

इसके बाद उस यंत्र को जल से स्नान करवा ले और अक्षत की ढेरी पर स्थापित कर उसका अक्षत,चन्दन की धूपबत्तीघृत दीपपुष्पनैवेद्य  आदि से पूजन करे.पूजन करते हुए-



ॐ शुं शुक्राय नमः अक्षतं समर्पयामी ,
ॐ शुं शुक्राय नमः पुष्पं समर्पयामी धूपं समर्पयामी .....
   

आदि कहते हुए पूजन करेतत्पश्चात निम्न मन्त्र की 51 माला जप करे और ये क्रम 14 दिनों तक करना है जिस्सके साधना में पूर्ण सफलता की प्राप्ति हो और सभी लाभ मिल सके.



ग्रहेष शुक्र मन्त्र - || ॐ स्त्रीम् श्रीं  शुक्राय नमः ||   

  

और प्रतिदिन जप के बाद मन्त्र के अंत में ‘स्वाहा लगाकर उपरोक्त मन्त्र के द्वारा सफ़ेद चन्दन बुरे की 21 आहुतियाँ डालेये नित्य प्रति का कर्म है ,जिसे 14 दिनों तक करना ही है ,इसके पश्चात जप पुनः एक माला गुरु मन्त्र की करके जप समर्पण कर आसन से उठ जाये.




अपने २४ वर्षों के साधनात्मक जीवन में मैं हजारों गुरुभाइयों और साधकों से मिला हूँ और उनमे से बहुतेरे को मैंने इन्ही समस्या से पीड़ित पाया है और इसी कारण मैं सदगुरुदेव से प्रार्थना कर उस अद्विय्तीय साधना को आप सभी के समक्ष रखा है ये विधान अभी तक गुप्त रखा गया थायदि आप इसे अपनाएंगे तो यकीन मानिये आपको कदापि निराश नहीं होना पड़ेगाअब मर्जी आपकी है.

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